आज के युग में मीडिया की ताकत का आकलन आसान नहीं है। मीडिया ने ही वैश्वीकरण को आकार दिया है और वैश्वीकरण ने दुनिया को एक बाजार बना दिया। मीडिया के दो रूप हैं प्रिंट मीडिया और इलेक्ट्रानिक मीडिया। प्रिंट मीडिया का अस्तित्व तब से है जब छापाखाना विकसित हुआ। हाँ, पिछले दिनों वैश्वीकरण के नाते उसके चरित्र और रूप में आशातीत वैविध्य और विस्तार आया है। मिशनरी पत्रकारिता अब अतीत का विषय बन चुकी है और आज वह कारपोरेट घरानों के हितों को साधने की चाकर बन चुकी है। ज्यादातर संपादक अब प्रबंधन का काम देखते हैं और अपनी विचारधारा को अपने मालिकों के हाथों गिरवी रखकर ही पत्रकारिता करते हैं क्योंकि उनके पास समझौता करने के अलावा दूसरे विकल्प नहीं बचे हैं।
पन्द्रह-बीस साल पहले तक पत्रकारिता और साहित्य का रिश्ता बहुत गहरा था। 'दिनमान', 'धर्मयुग', 'साप्ताहिक हिंदुस्तान' जैसी पत्रिकाएँ बड़े औद्योगिक घरानों की थीं। परंतु संपादकों की नैतिकता और ईमानदारी के बल पर समाज में अपनी सकारात्मक अमिट छाप छोड़ सकी थीं और इन पत्रिकाओं में स्तरीय साहित्य भी देखने को मिल जाता था, किंतु आज एक भी ऐसी स्तरीय पत्रिका देखने को नहीं मिलती जो किसी बड़े औद्योगिक घराने की हो और जिसमें सामाजिक यथार्थ के साथ साथ साहित्य के लिए भी समुचित जगह हो।
इलेक्ट्रानिक मीडिया की दुनिया अपेक्षाकृत नई है। इसमें सिनेमा का इतिहास सबसे पुराना है। सिनेमा का चरित्र तेजी से बदला है और अब वह मीडिया का सशक्त हिस्सा बन चुका है।
एक दौर में साहित्य और सिनेमा का बहुत गहरा संबंध था। हिंदी की अनेक मशहूर कृतियों पर फिल्में बनीं और सराही गईं। प्रेमचंद की 'दो बैलों की कथा', 'सद्गति' और 'शतरंज के खिलाड़ी' पर क्रमशः 'हीरामोती', 'सद्गति' और 'शतरंज के खिलाड़ी' नाम से, मोहन राकेश के 'उसकी रोटी', 'आषाढ़ का एक दिन' और 'आधे अधूरे' पर क्रमशः इन्हीं नामों से, कमलेश्वर के 'एक सड़क सत्तावन गलियाँ', 'फिर भी' और 'डाक बंगला' पर क्रमशः 'बदनाम गली', 'फिर भी' और 'डाक बंगला' नाम से, मन्नू भंडारी के 'यही सच है' पर 'रजनीगंधा' नाम से, तथा 'आप का बंटी' पर इसी नाम से, फणीश्वरनाथ रेणु के 'मारे गए गुलफाम उर्फ तीसरी कसम' और 'मैला आँचल' पर क्रमशः 'तीसरी कसम' और 'डाग्डर बाबू' नाम से, विजयदान देथा की 'दुविधा' और 'परिणति' पर इन्हीं नामों से, चंद्रधरशर्मा गुलेरी के 'उसने कहा था' पर इसी नाम से, राजेंद्र यादव के 'सारा आकाश' पर इसी नाम से, निर्मल वर्मा के 'माया दर्पण' पर इसी नाम से, भीष्म साहनी के 'तमस' पर इसी नाम से, शैवाल के 'दामुल' पर इसी नाम से, धर्मवीर भारती के 'सूरज का सातवाँ घोड़ा' पर इसी नाम से, हसन अब्बास के 'आनंदी' पर 'मंडी' नाम से आदि फिल्में उल्लेखनीय हैं। इन पर फिल्में बनाने वाले सत्यजीत रे, ह्रृशीकेश मुखर्जी, मणि कौल, बासु चटर्जी, बासु भट्टाचार्य, प्रकाश झा, नवेंदु घोष, गोविंद निहलानी, गौतम घोष, श्याम बेनेगल, मुजफ्फर अली जैसी मशहूर हस्तियाँ थी। उल्लेखनीय यह है कि इनमें ज्यादातर अहिंदी भाषी फिल्मकार हैं। खेद है कि धीरे धीरे सिनेमा और साहित्य का यह रिश्ता कमजोर पड़ता गया और वैश्वीकरण की आँधी ने तो बची खुची डोरियाँ भी झटक डालीं।
सातवें दशक के आरंभ से सिनेमा का मूल्यांकन कलात्मक आधार पर उसे दो वर्गों में बाँटकर किया जाने लगा - कला सिनेमा (आर्ट फिल्म) और लोकप्रिय सिनेमा (पापुलर फिल्म)। लोकप्रिय सिनेमा की प्रतिक्रिया में साठ के दशक से ही फिल्मकारों का अलग वर्ग उभरना शुरू हो गया था जिसे 'समांतर सिनेमा', 'कला सिनेमा' और 'नया सिनेमा' जैसे नामों से पुकारा जाने लगा। इस तरह की फिल्मों की विशेषताओं में छोटा बजट, यथार्थ पर केंद्रित विषय वस्तु और भारतीय दृश्य महत्वपूर्ण है। भारत में कला सिनेमा की आंतरिक प्रेरणा के स्रोत सत्यजित रे माने जाते हैं जिन्होंने 1955 में 'पाथेर पांचाली' बनाकर विश्व सिनेमा में भारतीय सिनेमा को जगह दिलाई। हिंदी को छोड़कर बाकी भाषाओं में कला फिल्मों ने अपने स्थायी दर्शक बना लिए तथा उनकी निर्माण गति भी तुलनात्मक रूप से ज्यादा थी।
नब्बे के दशक में सोवियत संघ के विघटन के बाद और अमरीकी साम्राज्यवाद के नेतृत्व में आर्थिक उदारीकरण की नीतियों के विश्वव्यापी प्रसार के चलते हिंदी फिल्मों का चरित्र पूरी तरह से बदल चुका है। अब फिल्मों का पूरी तरह व्यावसायिक इस्तेमाल होने लगा। गरीबी, शोषण, सांप्रदायिकता जैसे विषय अब नेपथ्य में चले गए। इन दिनों निर्मित हिंदी फिल्में एक ओर यदि अभिजातवर्ग की परिवार केंद्रित भावनात्मक समस्याओं को लोकप्रिय मुद्दा बना रही हैं तथा उदारीकरण तथा निजीकरण से उत्पन्न समाज के एक हिस्से की समृद्धि को महिमा-मंडित कर रही हैं तो दूसरी ओर समाज के अपराधीकरण को। पिछले दिनों माफिया गिरोहों की कारस्तानियों को कई तरह से और बार बार फिल्माया गया है। अब अपराध, ऐक्शन और सेक्स-कामेडी फिल्मों का मुख्य विषय हो गया है।
हिंदी फिल्मों के चरित्र को समझने के लिए यह देखना जरूरी है कि इस उद्योग में पैसा किसका लगा है। पिछले दिनों अर्थात 2010 के बाद जिन फिल्मों ने 100 करोड़ से ज्यादा का बिजनेस किया है यदि उन पर एक नजर दौड़ाएँ तो एक भयानक परिदृश्य उपस्थित हो जाता है। ऐसी फिल्मों में चेन्नई एक्सप्रेस, बाडीगार्ड, एक था टाईगर, किंग, सिंघम, और ग्रैंड मस्ती जैसी फिल्में हैं। यह सही है कि इनमें एक दो अच्छी फिल्में भी हैं किंतु सवाल यह है कि जिस देश में पिछले दो दशकों में लगभग तील लाख किसानों ने आत्महत्या कर ली हो, तो उन पर कोई फिल्म क्यों नहीं बनी? 100 करोड़ से ज्यादा का मुनाफा कमाने वाली फिल्मों में एक फिल्म 'पीके' भी है। 600 करोड़ का बिजनेस करने वाली फिल्म 'पीके' ने 340 करोड़ ओवरसीज और कारपोरेट घरानों से कमाया है। बाकी 260 करोड़ में से 200 करोड़ इस देश के 5 करोड़ आभिजात्य वर्ग यानी, उच्च मध्यवर्ग से आया है बाकी सिर्फ 60 करोड़ ही आम जनता से आया है। ऐसी दशा में सहज ही निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि सिर्फ 60 करोड़ देने वाली जनता के लिए कोई फिल्म क्यों बनाएगा? इसीलिए अब किसी सामाजिक समस्या पर या कोई संदेश देने के लिए फिल्मों के निर्माण का वक्त चला गया। 'डर्टी पिक्चर' की हिरोईन जब कहती है कि फिल्म सिर्फ तीन कारणों से चलती है - इंटरटेनमेंट, इंटरटेनमेंट और इंटरटेनमेंट, तो उसका यह भी मतलब होता है कि फिल्में इन्हीं तीन वजहों से बनती भी हैं।
विगत दो दशकों में हिंदी सिनेमा ने अपनी बची-खुची जातीय और लोक परंपराओं को भी भुला दिया है। अब हिंदी फिल्मों का संबंध ग्रामीण यथार्थ से लगभग खत्म हो चुका है। मल्टीप्लेक्स के आगमन ने हिंदी सिनेमा की पूरी संस्कृति को ही बदल कर रख दिया है। पहले बड़े-बड़े सिनेमा हालों में समाज के सभी तबकों के लोग एक साथ बैठकर फिल्में देखते थे। यद्यपि वहाँ भी दर्शकों में स्तर-भेद था और टिकटों के दाम अलग-अलग थे किंतु आज की तरह नहीं। आज मल्टिप्लेक्स में एक साथ तीन-तीन चार-चार फिल्में दिखाई जाती हैं। अंग्रेजी बोलने वाला उच्च और उच्च मध्य वर्ग अपने समकक्ष दर्शकों के साथ बैठकर छोटे-छोटे हालों में फिल्में देखता है। इन्हीं दर्शकों को ध्यान में रखकर आज फिल्मों का उत्पादन भी हो रहा है।
पिछले दिनों बनने वाली हिंदी फिल्मों के शीर्षकों पर यदि नजर दौड़ाएँ तो इस परिवर्तन की कुछ बानगी देखी जा सकती है। पहले जहाँ शीर्षक शुद्ध हिंदी या हिंदुस्तानी में हुआ करते थे, वहाँ अब 'वैलडन अब्बा' ( 2010), 'मेरे ब्रदर की दुल्हन' ( 2011), 'डबल धमाल' ( 2011), 'आलवेज कभी कभी (2011), 'एक था टाईगर' ( 2012) 'साहब, बीबी और गैंगस्टर्स रिटर्न' ( 2013), 'चेन्नई एक्सप्रेस' ( 2013) जैसे शीर्षकों वाली फिल्मों की बाढ़ आ गई है। कहीं कहीं तो हिंदी फिल्मों के पूरे के पूरे शीर्षक ही अंग्रेजी के देखे गए। जैसे 'बाडीगार्ड' ( 2011), 'दि डर्टी पिक्चर' ( 2011) 'वन्स अपोन ए टाईम इन मुंबई' ( 2010) 'सन आफ सरदार' ( 2012) 'शूट आउट ऐट वडाला' ( 2013) 'स्पेशल-26' ( 2013), 'पीके' ( 2014) और 'तनु वेड्स मनु रिटर्न' (2015) आदि।
इस तरह आज हिंदी सिनेमा बहुराष्ट्रीय कंपनियों के उत्पादों के लिए उपभोक्ता तैयार करने का माध्यम बन गया है। यह उपभोक्ता वर्ग तभी तैयार हो सकता है जब दर्शकों को उनकी अपनी देशज संस्कृति से च्युत किया जा सके और यह काम भाषा को विकृत करके सबसे आसानी से किया जा सकता है। आज बाजारवाद यह कुचेष्टा कर रहा है कि हिंदी भाषी संस्कृति की जड़ों को ही सुखा दिया जाय। बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ अपने इस उद्देश्य में सफल होती जा रही हैं। हिंदी फिल्मों की भाषा हिंदी या हिंदुस्तानी की जगह हिंग्लिश होती जा रही है और इस तरह हिंदी सिनेमा अपनी ही जातीय छवि को विकृत और ध्वस्त करता जा रहा है।
ऐसी दशा में अब मुख्य धारा के सिनेमा से कोई उम्मीद नहीं बची है यदि कहीं उम्मीद है तो वह डाक्यूमेंट्री फिल्मों से। यह सही है कि डाक्यूमेंट्री फिल्मों की स्थिति बहुत दयनीय है किंतु आज जिस तरह तकनीकों के विकास से एक ओर फिल्मों का निर्माण आसान हो गया है तो दूसरी ओर फिल्में अब लैपटाप से लेकर मोबाइल तक पर सहज ही देखी जा सकती हैं। ऐसी दशा में इस देश की विशाल आम जनता के सामने डाक्यमेंट्री फिल्मों का व्यापक विकल्प मौजूद है जहाँ हम इस देश की आम जनता की समस्या को आम जनता के बीच दिखा सकते हैं।
इसी बीच दिल्ली में 15 सितंबर 1957 को मनोरंजन के क्षेत्र में टेलीविजन नामक एक नए जनमाध्यम की शुरुआत हुई। आरंभ में तो इसका कोई ज्यादा असर नहीं हुआ क्योंकि भारत जैसे गरीब और विकासशील देश में टेलीविजन खरीद पाना सबके बस की बात नहीं थी। किंतु 1971 के बाद दूरदर्शन का तेजी से विस्तार हुआ। अनेक टेलीविजन केंद्र खुले और राष्ट्रीय कार्यक्रमों का विस्तार हुआ। इसके बाद इसकी गति और लोकप्रियता असर हम सबके सामने है। किंतु सिनेमा की ही तरह टेलीविजन का इस्तेमाल भी कारपोरेट दुनिया के लोग अपनी पूँजी के विस्तार और मुनाफे के लिए कर रहे हैं। इसका इस्तेमाल भी मध्यवर्ग और अधिक से अधिक निम्न मध्यवर्ग के चरित्र को बाजार के अनुरूप ढालने के लिए किया जा रहा है। टेलीविजन के सैकड़ों चैनल में से एक भी नहीं हैं जो गाँवों में रहने वाली देश की सत्तर प्रतिशत किसानों की समस्याओं को अथवा मजदूरों को अपने धारावाहिकों का विषय बनाए।
इंटरनेट ने सूचना के क्षेत्र में अद्भुत और अकल्पनीय क्षमता का परिचय दिया है। सूचना के जाल का विस्तार इस युग की सबसे बड़ी क्रांति है। इंटरनेट की शुरुआत 1973 ई. में अमेरिका में एक रक्षा परियोजना के रूप में हुई थी। 1983 ई. में यह योजना कुछ चुनी हुई संस्थाओं के इस्तेमाल के लिए खोली गई और मात्र दो दशकों से भी कम समय में इसने पूरे भू-मंडल को अपनी चपेट में ले लिया।
मीडिया की रीढ़ इंटरनेट है और इसका जिस रूप में इस्तेमाल साम्राज्यवादी देशों और बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने किया है उसका आकलन कर पाना भी संभव नहीं है। एडवर्ड एस. हर्मन और राबर्ट डब्ल्यू. मेक्चेस्ने नामक अमेरिका के दो प्रख्यात अर्थशास्त्रियों ने संयुक्त रूप से 'द ग्लोबल मीडिया : द न्यू मिशनरीज ऑफ कॉरपोरेट कैपिटलिज्म' नाम से पुस्तक लिखी जो 1997 में प्रकाशित हुई। इस पुस्तक में मीडिया के असीमित विस्तार से जुड़े ऐसे सभी राजनीतिक और आर्थिक सवालों पर ठोस आँकड़ों और तथ्यों की रोशनी में विचार किया गया है। पुस्तक में साम्राज्यवादी देशों और वहाँ की बहुराष्ट्रीय कंपनियों के गठजोड़ और तीसरी दुनिया पर वर्चस्व कायम करने की उनकी कोशिशों का प्रामाणिक विश्लेषण है। पुस्तक के अनुसार मीडिया का यह विस्तार न तो एक नए युग की शुरुआत है और न ही इससे दुनिया के गरीब और मेहनतकश लोगों की जिंदगी में कोई सकारात्मक परिवर्तन आने वाला है। इसके विपरीत इसका विस्तार सिर्फ विषमता को बढ़ाने और विभिन्न समाजों और देशों में नए तरह के तनाओं और संघर्षों को पैदा करने का कारण बनेगा।
पुस्तक के प्रकाशन के लगभग डेढ़ दशक बाद आज इसके लेखकों के आकलन अक्षरशः सही साबित हो रहे हैं। इंटरनेट से जुड़े अनेक सर्च इंजन, ब्लाग, फेसबुक, ट्वीटर सहित टेलीविजन के सैकड़ों चैनल रात-दिन अपने असंख्य रूपों और साधनो से एक ओर अपने विभिन्न उत्पादों का प्रचार प्रसार करने और हमें अपने बाजार के अनुकूल उपभोक्ता बनाने में लगे हैं तो दूसरी ओर हमारी चेतना को, हमारी स्वतंत्र तार्किक और चिंतन क्षमता को कुंद करने में। इस काम में उन्हें आशातीत सफलता मिल रही है। एक जनतांत्रिक देश में यदि लोगों की सोच को ही नियंत्रित कर दिया जाय और उन्हें एक खास दायरे में ही सोचने को विवश कर दिया दिया जाय तो शासक वर्ग के लिए भला इससे अच्छी बात क्या हो सकती है? आज मीडिया ठीक यही काम कर रही है। मोबाइल और लैपटॉप को हर वक्त अपनी आँखों के सामने रखे घूमता रहता आज का युवा वर्ग जितना कनफ्यूज्ड है उतना इतिहास में कभी नहीं था। जिस युवा वर्ग के हाथों में देश का भविष्य है, जिस युवा वर्ग ने दुनिया में बड़ी से बड़ी क्रांतियों को अंजाम दिया है आज वह दिग्भ्रमित और हताश होकर आत्महत्याएँ कर रहा है। देश भर के विश्वविद्यालयों और शिक्षण संस्थाओं के छात्र संगठन अब छात्रों के हित की लड़ाई नहीं लड़ते बल्कि वे किसी न किसी राजनीतिक पार्टियों की दलाली करते हैं।
मीडिया समीक्षा के क्षेत्र में विगत दो दशकों में कई नाम उभरे हैं। उनमें से कुछ का उल्लेख करूँगा।
कृष्ण बिहारी मिश्र की ख्याति यद्यपि उनके द्वारा रचित रामकृष्ण परमहंस की जीवनी 'कल्पतरु की उत्सव लीला' और उनके ललित निबंधों के नाते अधिक है किंतु हिंदी पत्रकारिता के समीक्षक के रूप में भी उनका स्थान शीर्ष पर रखा जा सकता है। यद्यपि उन्होंने कभी कोई पत्रकारिता नहीं की, किसी अखबार या पत्रिका का संपादन नहीं किया, किंतु उन्होंने पत्रकारिता के क्षेत्र में अपने शोध और अध्ययन से एक कीर्तिमान स्थापित किया। उन्होंने नवजागरण की हिंदी पत्रकारिता का विस्तृत मूल्यांकन किया है। 'हिंदी पत्रकारिता : जातीय चेतना और खड़ी बोली साहित्य की निर्माण भूमि', 'पत्रकारिता : इतिहास और प्रश्न', 'हिंदी पत्रकारिता : जातीय अस्मिता की जागरण भूमिका', 'गणेश शंकर विद्यार्थी', 'हिंदी पत्रकारिता : राजस्थानी आयोजन की कृती भूमिका' आदि उनकी पत्रकारिता पर केंद्रित विशिष्ट आलोचनात्मक पुस्तकें हैं। उनके पत्रकारिता संबंधी कार्यों की सबसे महत्वपूर्ण विशेषता है कि उन्होंने मूल सामग्री का पूरी निष्ठा और ईमानदारी के साथ भरपूर उपयोग किया है, इसीलिए उनके कार्यों की प्रामाणिकता में किसी तरह के संदेह की गुंजाइश नहीं है।
मार्क्सवादी विचारों से प्रभावित जवरीमल्ल पारख संस्कृति, सिनेमा और मीडिया के गंभीर समीक्षक हैं। 'हिंदी सिनेमा का समाजशास्त्र', 'लोकप्रिय सिनेमा और सामाजिक यथार्थ', 'जनसंचार माध्यमों का सामाजिक संदर्भ', जनसंचार माध्यमों का वैचारिक परिप्रेक्ष्य', 'जनसंचार माध्यमों का राजनीतिक चरित्र', 'जनसंचार माध्यम और सांस्कृतिक विमर्श', 'साझा संस्कृति, सांप्रदायिक आतंकवाद और हिंदी सिनेमा' आदि मीडिया और सिनेमा पर केंद्रित उनकी प्रमुख आलोचनात्मक पुस्तकें हैं। उनकी मान्यता है कि जनसंचार माध्यमों का संबंध सामाजिक परिवर्तनों से बहुत गहरा है और उसकी उपेक्षा नामुमकिन है। इसीलिए जरूरी है कि जनसंचार के साधनों के प्रति जनता में हम सही समक्ष विकसित करें।
सिनेमा के विषय में उनकी मान्यता है कि हिंदी का लोकप्रिय सिनेमा बुनियादी तौर पर यथास्थिति का समर्थक है। लेकिन लोगों को यथास्थिति का समर्थक बनाए रखने के लिए उसे नए नए तरीके और नई नई तकनीकें अपनानी पड़ती हैं। उन्हें अपने को बराबर प्रासंगिक बनाए रखना पड़ता है। उन्हें यह आभास भी देना पड़ता है कि वे परिवर्तन के समर्थक हैं, उस परिवर्तन के जो जनता के हित में हो। लेकिन इन कोशिशों में सिनेमा के संसार में उन फिल्मकारों के लिए भी जगह निकल आती है जो सचमुच जनसमर्थक परिवर्तनकामी सिनेमा का निर्माण करना चाहते हैं।
वैश्वीकरण के बाद के परिदृश्य में उभरे आधुनिक विमर्शो और मीडिया के लगभग सभी संप्रेषण माध्यमों पर समान गति से तथा सबसे पहले अपनी बेबाक किंतु तर्कसंगत टिप्पणियों से सभी सुधी पाठकों का ध्यान आकृष्ट करने वाले सुधीश पचौरी का मीडिया समीक्षकों में विशिष्ट स्थान है। उत्तर-आधुनिकतावाद, उत्तर संरचनावाद, बाजारवाद, देरिदा के विखंडन आदि पर हिंदी में सबसे पहले उन्हीं की कलम चली। उन्होंने भारतीय समाज में उत्तर आधुनिक परिदृश्य को पहचाना और प्रकारांतर से हिंदी साहित्य लेखन की स्वाभाविक दिशा की ओर रचनाकारों का ध्यान आकृष्ट किया।
सुधीश पचौरी ने पिछली सदी के अंतिम दशक में ही मीडिया की बढ़ती असीमित शक्ति को पहचान लिया था। उन्हीं दिनों उन्होंने मीडिया के विस्तार को एक क्रांति की तरह देखा था और घोषित किया था कि माध्यम क्रांति ने साहित्य के प्रचलित रूप को नया संस्कार दिया है। विधाएँ 'चैनल' बनाई जा रही हैं। रूप 'दृश्य' में बदल रहे हैं। भाषा के शब्दार्थ 'चिह्नों' में बदले जा रहे हैं। हर साहित्य रूप अब मीडिया के भीतर ही संभव होता है। हर वह अनुभव जो दूसरे तक संप्रेषित होना चाहता है, मीडिया पर निर्भर हो जाता है। व्यक्ति-व्यक्ति के बीच, लेखक-पाठक के बीच प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मीडिया की निर्णायक भूमिका कायम हो चुकी हैं।
सुधीश पचौरी की प्रमुख आलोचना पुस्तकें हैं, 'कविता का अंत', 'दूरदर्शन की भूमिका', 'दूरदर्शन : स्वायत्तता और स्वतंत्रता', 'उत्तर-आधुनिकता और उत्तर-संरचनावाद', 'उत्तरआधुनिक परिदृष्य', 'नवसाम्राज्यवाद और संस्कृति', 'दूरदर्शन : दशा और दिशा', 'दूरदर्शन : विकास से बाजार तक', 'उत्तरआधुनिक साहित्यविमर्श', 'मीडिया और साहित्य', 'देरिदा का विखंडन और साहित्य', 'साहित्य का उत्तरकांड' 'कला का बाजार', 'टी.वी. टाईम्स', 'इक्कीसवी सदी का पूर्वरंग,' 'प्रसार भारती और प्रसारण परिदृश्य', 'साइबर स्पेस और मीडिया', 'मीडिया, जनतंत्र और आतंकवाद', 'विभक्ति और विखंडन', 'नए जनसंचार माध्यम और हिंदी', 'जनसंचार माध्यम भाषा और साहित्य' आदि।
मनोहर श्याम जोशी ने सोलह साल तक साप्ताहिक हिंदुस्तान का संपादन किया। उस दौर में 'साप्ताहिक हिंदुस्तान' की गणना हिंदी की सर्वोत्तम पत्रिकाओं में होती थी। उन्होंने हिंदी पत्रकारिता के नए मानक गढ़े। वे पत्रकारिता के सभी माध्यमों के विशेषज्ञ थे। प्रेस, रेडियो, टी.वी., सिनेमा, वृत्तचित्र, विज्ञापन, आदि संप्रेषण का कोई भी माध्यम नहीं है जिस क्षेत्र में उन्होंने सफलता के साथ कलम न चलाई हो। 'मास मीडिया और समाज' उनकी मीडिया पर केंद्रित पुस्तक है।
पत्रकारिता के क्षेत्र में राजेंद्र माथुर का नाम आदर के साथ लिया जाता है। 'रामनाम से प्रजातंत्र तक' (3 खंड), 'सपनों में बनता देश' (2 खंड), 'भारत एक अंतहीन यात्रा' उनकी महत्वपूर्ण आलोचना पुस्तकें हैं। जगदीश्वर चतुर्वेदी ऐसे आलोचक हैं जिनकी मीडिया पर संभवतः सबसे ज्यादा पुस्तकें प्रकाशित हैं और वे अब भी लगातार लिख रहे हैं। वे वामपंथी विचारों के लेखक हैं और उनकी कृतियों में उनकी विचारधारा आसानी से लक्षित की जा सकती है। जगदीश्वर चतुर्वेदी की दूसरी विशेषता यह है कि वे दुनिया भर के समाज-वैज्ञानिकों और साहित्यकारों की नई से नई विचार सरणियों से जुड़े रहते हैं। प्रह्लाद अग्रवाल का तो सारा जीवन ही सिनेमा समीक्षा को सपर्पित है। सिनेमा समीक्षा के क्षेत्र में उनका योगदान अद्वितीय है।
मीडिया समीक्षा के क्षेत्र में उल्लेखनीय काम करने वाले अन्य आलोचकों में रामशरण जोशी, आलोक मेहता, प्रयाग शुक्ल, विष्णु खरे, अजय ब्रह्मात्मज, विनोद अनुपम, इंदुप्रकाश कानूनगो, मनमोहन चड्ढा, विनोद भारद्वाज, राम रतन भटनागर, अरविंद मोहन, राजकिशोर, नंद भारद्वाज, कृपाशंकर चौबे, सुरेश शर्मा, राहुल सिंह, वर्तिका नंदा आदि प्रमुख हैं।